भारतीय मीडिया का निधन हो गया है।
ओम शांति!
‘अयोध्या की ओर दौड़ती मीडिया की गाड़ियां,‘हिंदू’मीडिया की हैं। इनको मीडिया समझने की गलती न करें । नोएडा के सारे संपादक मीडिया के अंतिम संस्कार में मौजूद थे। जिन्होंने अंतिम संस्कार में जाने से इनकार कर दिया, उनका सामान उठाकर सड़क पर फेंक दिया गया।नोटिस पीरियड का पैसा नहीं दिया गया। मुक़दमे की धमकी और बुलडोजर की फ़ोटो दी गई है ।
निधन के बाद मीडिया का पुनर्जन्म नए भारत में ‘हिंदू’और सांप्रदायिक मीडिया के रूप में हुआ है। इस जन्म में इनके माता-पिता का IT सेल है। इस जन्म में सभी मीडिया संस्थान जुड़वा पैदा हुए हैं। इसलिए सबकी हरकतें, चीखने चिल्लाने और दूसरों पर हमला करने की आदत एक जैसी हैं । यह संविधान की भाषा नहीं समझते, इनके दिमाग़ में केवल नफ़रत और हिंसा फीड हैं।
इनकी गाड़ियों पर लिखे गए स्लोगन,इनके दिमाग़ से नहीं बेंगलोर से आते हैं।’ भारतीय मीडिया IT सेल का एक्सटेंशन बन गया है।
क्या राम मंदिर मीडिया कम्पनियों ने बनवाया है? अगर मीडिया गाड़ियों पर सरेआम लिखकर बता रहा है,मंदिर इन्होंने बनवाया है, तो भाजपा को इसका खंडन करना चाहिए! भाजपा कहती है, मंदिर उसने बनवाया है। तो इसलिए भाजपा की नैतिक ज़िम्मेदारी है, वह स्पष्ट करे कि मंदिर किसने बनवाया!
अयोध्या की ओर दौड़ती गाड़ियां, असल में भाजपा के डीज़ल और एजेंडे पर चुनाव प्रचार में जुटी गाड़ियां हैं। इन गाड़ियों में पत्रकार नहीं जाते, सरकारी चित्रकार जाते हैं जो सरकार के बताए नज़ारे का चित्रण कर देते हैं।
भाजपा चुनाव प्रचार में 22 जनवरी के बाद जुटेगी, अभी प्रचार की कमान पुनर्जन्म लेने वाला मीडिया संभाल रहा है।
नोएडा में मीडिया के नाम पर भाजपा कंपनियों में काम करने वाले लोग, पूजा पाठ घर से करने की जगह, घर का मंदिर भी ऑफ़िस में ले आए हैं ।जिससे वह अपने कामकाज का पूरा हिसाब बैंगलोर भेज सकें।
अब भारतीय नागरिकों को तय करना है, वह अभी भी हर दिन के झगड़े को पत्रकारिता कहेंगे? अपने चंदे पर बने मंदिर का श्रेय मीडिया कम्पनियों को लेने देंगे?
अपने विवेक का टेंडर मीडिया को मत दीजिए।
इसे पत्रकारिता नहीं, नागरिकों की आस्था और विश्वास का मज़ाक उड़ाना कहते हैं!
आप क्या कहेंगे तय कर लीजिए…